एक स्मृति-राग की तरह
रमेश चंद्र शाह की कहानी 'जानकी'
रमेशचंद्र शाह की कहानी ‘जानकी’ अपनी दुर्लभ सादगी और सहजता में एक अकुंठ-निष्कलुष मन की भीतरी तहों में उठते संवेगों की बनावट को खोलने वाला मार्मिक आख्यान है। यह आख्यान कहानी को यथार्थ की ठस समाजशास्त्रीय समझ के इलाक़े से मनुष्य के अन्तः संसार में खींच लाता है। यहाँ सामाजिकता की रूढ़ और संकीर्ण धारणाओं का अतिक्रमण कर क़स्बाई रिश्तों की निश्छल अंतरंगता और उनके बीच विकसित आपसदारी का वृत्तांत रचा गया है, जिसकी परिणति गहरे अनुराग और मानवीय संसक्ति में होती है। सामाजिक सम्बन्धों के यांत्रिक होते जाने की प्रक्रिया में आज जब हमारा क़स्बाई और ग्रामीण परिवेश भी व्यक्ति और व्यक्ति के बीच पसरती उदासीनता और निस्पृहता की चपेट में है, धीरे-धीरे लुप्त हो रहे उस मानवीय राग को यह कहानी रेखांकित करती है, जो वास्तविक जीवन से अब स्मृतियों की ओर खिसकता जा रहा है। बाल्यकाल के तीव्र मनोवेग और कैशोर्य की वय-संधि की ओर संक्रमणशील मन के भीतर उठती तरंगों को और उसके बीच धीरे-धीरे पकते भावात्मक संसार को यह कहानी प्रामाणिकता के साथ खोलती है।
कहानी शुरू होती है बचपन के दिनों में लड़कियों के प्रति लड़कों के मन में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने वाले विपरीतलिंगी आकर्षण के ब्यौरे के साथ। वाचक संकेत करता है कि बाल-वय के कथानायक में यह आकर्षण कुछ ऐसा अबूझ था कि जाने क्यों वह लड़कियों के बीच जाने पर खिल उठता और लडकों का साथ होने पर मुरझा जाता। खेलकूद में वह भरसक लडकों के साथ उनकी बराबरी करना चाहता, लेकिन बराबरी उसके बूते से बाहर की बात थी। वह अपनी बातों से लड़कियों को प्रभावित करता, लेकिन लड़के उसके इसी गुण के कारण उसे ज़्यादा पसंद नहीं करते थे, हालाँकि उसका किसी से झगड़ा नहीं होता था। मुहल्ले में सभी उसे पसंद करते थे। वह सब के बीच एक आदर्श लड़का समझा जाता था, लेकिन अपने से छोटी उम्र के लड़के से झगड़ा होने और उसके हाथों सरे-बाज़ार पिट जाने के बाद वह आत्मग्लानि से महीनों उबर नहीं पाया। इस तरह यह कहानी एक बालक के अंतर्मन की गुत्थियों को खोलने की कोशिश शुरू करती है। उसके भीतर कहीं गहरे तक अपनी कमतरी का अहसास पनपने लगता है। ग्लानि-बोध से छुटकारा पाने और अपनी कमतरी दूर करने के लिए उसने व्यायाम और योग के अभ्यास से शारीरिक बल हासिल करने की कोशिश की और पहलवान बनना चाहा, लेकिन इसमें भी नाकाम होने के बाद उसने सुबह जंगल की सैर में जाना और प्रकृति के सौंदर्य को निहारना शुरू किया। इस तरह वह एकांत प्रेमी हो गया।
जंगल और पहाड़ में भटकते हुए वह सोचता पहाड़ की चोटी का नाम बानड़ी देवी या कासारा देवी आदि क्यों है? उसे लगता लड़कियाँ भी सभी देवी की तरह हैं –ख़ासकर तब जब वे मुस्कुराती हैं, मोहिनी दीदी की तरह या बगल वाली जानकी की तरह। जानकी उसे बहुत अच्छी लगती है। वह अपने से पाँच-छह वर्ष बड़ी मोहिनी को तो दीदी कहता लेकिन जानकी को कहने में न जाने उसे कैसा संकोच होता।
फिर एक दिन जानकी से उसकी दोस्ती हो गई। कहानी में उनकी दोस्ती और गहरे लगाव के विविध प्रसंगों का उल्लेख किया गया है। यह लगाव ने धीरे-धीरे एक अबूझ-सी आसक्ति में तब्दील हो गया। बानड़ीदेवी की सैर पर जंगल में अपने और जानकी के परिवार के जाने और उन दोनों के कहीं पीछे छूट जाने पर उसे जानकी के साथ बिताए क्षणों ने जैसे बेतरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया। उसे चारों तरफ़ जानकी-ही-जानकी दिखाई देती। उसे जानकी साक्षात बानड़ीदेवी जान पड़ती।
कहानी में जानकी के सान्निध्य के सम्मोहन में डूबे कथानायक के प्रति उसकी छोटी बहन लीला की नाराज़गी के प्रसंग का उल्लेख है। जानकी से कथानायक की निकटता, रोज़ रात में दूकान बंद करते समय दोनों का खुसुर-पुसुर करना लीला को नहीं सुहाता। जैसे कहीं उसके मन में स्वाभाविक ईर्ष्या पनप रही हो। यह बालसुलभ ईर्ष्या है। लेकिन कथानायक नब्बू दूकान बन्द करने में रोज़ जानकी की मदद करता है और यह सिलसिला बरसों तक चलता है। फिर जानकी के विवाह की चर्चा होने लगती है। मुहल्ले की सभी लड़कियों का विवाह हो रहा है। जानकी का विवाह तय नहीं हो पा रहा। बात होती है, पर बन नहीं पाती। सहसा एक दिन जानकी के लिये रानीखेत वालों का रिश्ता आने की बात सुनकर नब्बू विचलित हो गया और अत्यंत व्याकुल क्षण में जानकी से कह बैठा – ‘जानकी, तू चली जाएगी तो मैं क्या करूँगा? तू मेरे साथ ही ब्याह कर ले, जानकी।’
कथानायक के भीतर घुमड़ती छोटी-छोटी तरंगों के संयोजित हो कर भावावेग की उद्दाम लहर में अकस्मात उठा यह क्षण जब प्रकट हुआ तो उसने जैसे उसके समूचे अस्तित्त्व को झकझोर दिया। उसकी चेतना मानो उस मर्म-क्षण में सम्पूर्णतः एकाग्र हो गई। यह उसके अन्तःस्थल से उठी अकुंठ पुकार थी। जानकी भी इस अप्रत्याशित स्थिति से अचकचा गयी। उसकी धड़कन तेज़ हो गयी। लड़के को होश नहीं कि उसके बाद क्या हुआ।
वह क्षण उसके भीतर कहीं जड़ीभूत हो गया। जानकी की ‘स्तब्ध-विजड़ित छवि’ ने उसे इस क़दर मनोदैहिक रूप से आच्छादित कर लिया कि वह उसके गहरे असर से मुक्त न हो पाया। उसके मन में ग्लानि थी और उसकी देह तप रही थी। यह मनोदैहिक ताप था। अकस्मात घटित उस क्षण के तीव्र आवेग को वह बर्दाश्त नहीं कर सका था। जानकी के प्रति भी अब वह सहज नहीं है।
नब्बू की मनोदशा का प्रत्यक्ष वर्णन करने की बजाए कथाकार ने यहाँ सम्भावना या अटकल का कथात्मक युक्ति के तौर पर विदग्धतापूर्वक इस्तेमाल किया है। इस घटना के बाद क्या हुआ होगा? नब्बू ने कैसा महसूस किया होगा – यह बताने के लिए नैरेटर प्रश्नों की झड़ी लगा देता है, फिर अंत में पूछता है – ‘क्या यह सिलसिला…..बरसों का सिलसिला….. जानकी के साथ बैठने-बतियाने का... क्या उस रात के बाद भी हर रात पहले की तरह चलता रहा होगा?’
इसके बाद कथाकार ने जो विवरण दिया है, उससे मालूम पड़ता है कि पूरी कहानी दरअसल स्मृतियों में घटित हुई है। अंत तक कहानी वर्तमान में घटित होती है लेकिन अंतिम क्षणों में सहसा पाठक को ज्ञात होता है कि सब कुछ कथानायक के स्मृति-संसार में है। यह फ़्लैशबैक की प्रचलित पद्धति का का अनूठा प्रयोग है। आमतौर पर कथानक का संयोजन कुछ इस तरह से किया जाता है कि शुरू में वर्तमान का संक्षिप्त ब्यौरा देकर फिर बीते हुए समय की कथा कही जाती है। लेकिन यहाँ अंतिम क्षणों के क़रीब आकर कहानी वर्तमान की केंचुल छोड़ कर अतीत में से प्रकट होती जान पड़ती है। कथा-तकनीक की दृष्टि से यह विलक्षण प्रयोग है। फिर आगे भी अतीत के ब्यौरे हैं। नब्बू की मनःस्थिति का और उसके भीतर के ग्लानि-बोध का प्रत्यक्ष शैली में वर्णन है और यह उल्लेख भी कि किस तरह उसके बाद बीमार नब्बू को देखने जानकी आयी, उसकी मिज़ाजपुर्सी की फिर उसके कानों में फुसफुसाकर जिस व्याकुल मनुहार के साथ धीरे से कहा – ‘आना हाँ’, उससे नब्बू को लगा कि जानकी दीदी ने उसे माफ़ कर दिया है। यहाँ पहली बार नब्बू के मन में जानकी के लिए दीदी शब्द आया।
क्या ऐसा नहीं लगता कि जानकी के इस ‘आना हाँ’ में कहीं गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ के ‘तेरी कुड़माई हो गई’-जैसी गहरी व्यंजना से भरे वाक्य की सांकेतिकता भी निहित है? लहनासिंह के चुहल-भरे कथन में जैसे एक अटूट रिश्ते का सूक्ष्म एहसास संकेतिेत हुआ था, कुछ वैसे ही जानकी के ‘उत्सुक-अधीर आग्रह’ से भरे इस वाक्य ‘आना हाँ’ में एक अपरिभाषित संबंध की सघन छाँव में पनपती अंतरंगता का सूक्ष्म बोध और निश्छल प्रेम की व्याकुल पुकार झलक मारती है।
दरअसल इस वाक्यांश के अर्थ-संकेत अंततः तब उजागर होते हैं जब चालीस बरस बाद अधेड़ नब्बू को रामनगर में अचानक जानकी के अविवाहित रह जाने की जानकारी होती है और वह सोचने लगता है – ‘इसमें उसका क्या क़सूर है?’ फिर भी वह जाने क्यों रामनगर में उस रात करवटें बदलता रह गया था और जब जानकी से भेंट हुई तो चलते वक़्त जानकी के मुँह से उसे वही वाक्यांश सुनाई दिया था – “आना, हाँ।” तब चालीस बरस का लम्बा अंतराल जैसे पल-भर में ढह गया और उसका अतीत सीधे वर्त्तमान की नोंक में एकाग्र हो उठा। एक अजीब-से अपराध-बोध से घिरे कथानायक के मर्म को भेदता यह चुभता हुआ वाक्यांश था – चालीस बरस की विस्मृति को झकझोरता हुआ, और जानकी के भीतर चालीस बरस से सिपचती पीड़ा को नब्बू के भीतर उजागर करता हुआ।
इस वाक्यांश की तीखी मर्मभेदी चुभन को महज़ भावुक पुकार मान कर टाला नहीं जा सकता, न ही यह कहानी भावुकता के लिए एक सृजनात्मक स्पेस रचने के प्रयत्न का परिणाम है। कथाकार यहाँ किशोर होते बालक के अन्तर्लोक में तटस्थ प्रेक्षक की तरह दाख़िल हो कर सम्वेदनशील तरीक़े से उसका अवलोकन करता है। मानव-व्यवहार की अप्रत्याशित विलक्षणता और उसके निपट अननुमेय रहस्य को समझने के प्रयत्न की दृष्टि से यह कहानी हमारी समझ में बहुत कुछ नया जोड़ती है। यही उसकी सार्थकता है।
यह कहानी एक स्मृति-राग की तरह उठती है और पाठक के मन को अद्भुत ढंग से तरंगित करती है।